Wednesday, March 10, 2010

टाँग

कल से एक एक कहावत है या मुहावरा मेरे दिमाग में उमड़ घुमड़ रहा है....'टाँग अड़ाना' ..सुनने में कितना आसान लगता है...सोचो तो एक दृश्य सामने आता है ...किसी ने अपनी टाँग आड़ी कर के लगा दी...अब ऐसा है कि किसी की टाँग अगर हमारे सामने आ जाए तो ज़ाहिर सी बात है ..हमारी गति रुक जायेगी.....अब आप कल्पना करके देखिये ज़रा ...आपने अपनी टाँग किसी के सामने कर तो उसकी तो ऐसी की तैसी हो जायेगी ना....!!ज़रा एक बार फिर इसे सोचें ...आपके दिमाग में एक शारीरिक भंगिमा उभर आएगी...एक बिम्ब बनेगा.....इसे सोचने से दृश्य सामने आया कि आपने अपनी टाँग किसी के सामने कर दी...लेकिन क्या सचमुच ऐसा है...दृश्य और अर्थ में काफी फर्क है...कोई तालमेल नहीं....यह सिर्फ सुनने में ही आसान लगेगा लेकिन इसका अर्थ बहुत गहन है...इसी से मिलता जुलता एक और दृश्य अभी अभी दृष्टिगत हुआ है...लंगी मारना....इसकी अगर विवेचना करें तो जो दृश्य सामने आता है...उसमें एक ने दूसरे की टाँग में अपनी टाँग फ़सां दी और दूसरा व्यक्ति चारों खाने चित्त...अब ज़रा दोनों कहावतों पर गौर करें तो पायेंगे कि...टाँग अड़ाना एक स्थिर प्रक्रिया है जबकि लंगी मारना एक गतिमान प्रक्रिया...अब इस महाशास्त्र की विवेचना को जरा आगे लिए चलते हैं और सोचते हैं कि आखिर इस 'टाँग अड़ाने' का सही अर्थ क्या है...तो इसका सार्वजनिक अर्थ है... अनावश्यक हस्तक्षेप करना...आप चाहे न चाहें और ज़रुरत हो कि न हो....आपने अपनी टाँग अड़ा दी.....यह प्रक्रिया व्यक्ति विशेष की पसंद-नापसंद पर भी निर्भर है...अब कोई ज़रूरी नहीं कि आप जिस विषय को 'टाँग अडाऊ' सोच रहे हैं ..मैं भी उसे वैसा ही सोचूं...यह पूरी तरह टाँग अड़ाने वाले की इच्छा, सुविधा और ज़रुरत पर निर्भर करता है....कोई ज़रूरी नहीं है कि... यह एक ज़रुरत हो, यह एक शौक़ भी हो सकता है...या फिर आदत या फिर बिमारी...हाँ शौक़ जब हद से बढ़ जाए तो यह एक बीमारी का रूप ले लेता है...और तब बिना टाँग अड़ाए... उस व्यक्ति को आराम ही नहीं मिल पाता है....कुछ लोग तो टाँग अड़ाना अपनी राष्ट्रीय, या सामाजिक जिम्मेवारी भी समझते हैं...बल्कि इस काम के लिए वो अपना काम-धाम छोड़ कर पूरी तन्मयता के साथ 'टाँग अड़ाने' की नैतिक जिम्मेवारी निभाते हैं...टाँग अड़ाने की भी अपनी एक शैली है...कुछ तो सीधा अपनी टाँग अड़ा देते हैं और फिर उनकी ख़ुद की टाँग अथवा शरीर के अन्य अंगों पर भी मुसीबत आ जाती है....इसलिए इस प्रक्रिया में सावधानी की बहुत आवश्यकता होती है....कुछ लंगी मारने में विश्वास करते हैं...लंगी मारना ज्यादा दिमागी प्रक्रिया है ...इसकी सफलता के चांस भी बहुत ज्यादा होते हैं....लंगी मारना एक स्वार्थ परक प्रक्रिया है....और बहुत कम लोग लंगी मारने में पारंगत होते हैं....लेकिन टाँग अड़ाना एक कलात्मक प्रक्रिया है...और इसमें अधिक कलाबाजी देखने को मिलती है...टाँग अड़ाना विशुद्ध मानवीय वृति है ...और जैसा मैंने बताया ...यह एक कला है....और अधिकांश इस कला के कलाबाज़....जब यह अपनी सीमा पार कर जाए तो लोग यही कहते हैं ...'इसे तो टाँग अड़ाने की बीमारी है' ...अब ज़रा सोचिये.... आप क्या है ??? कलाबाज़ या बीमार ????