Sunday, November 28, 2010

सच्ची मित्रता

किसी भी इन्सान के जीवन में एक दोस्त की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका होती हैं ! दोस्त वह जो इन्सान के किसी भी रिश्ते पर भारी पड़ सकता है ! माता-पिता का रिश्ता हो , भाई-बहन का रिश्ता हो या हो पति-पत्नि का रिश्ता ! कई बार यह देखा गया है कि एक सच्चे दोस्त को इन सब रिश्तों से कहीं ज्यादा मान सम्मान दिया गया है ! इसलिए इस रिश्ते को सबसे बड़ा माना जाता है ! यह जरूरी नहीं कि दोस्त कोई आपके बाहर का हो ! वह आपके परिवार का कोई सदस्य भी हो सकता है ! एक माँ अपने बच्चे कि सबसे अच्छी दोस्त होती है जो उसका हमेशा ध्यान रखती है , उसको गलत राह पर जाने से रोकती है है ! अच्छे बुरे का ज्ञान कराती है ! हर वक़्त उसका ध्यान रखती है ! और बच्चा भी माँ को एक दोस्त के रूप में लेता हैं और अपनी सारी परेशानी और समस्याएं अपनी माँ को बताता है ! और यह दोस्ती का रिश्ता माँ-बेटे के रिश्ते से कहीं बड़ा होता है ! अगर बचपन में माँ बेटे का रिश्ता एक दोस्त के रूप में बनता है तो यह रिश्ता जीवन भर चलता है ! बच्चा बड़ा होकर भी अपनी बहुत सारी बातें माँ के सामने रखता है और माँ भी उसे सही राह बताती है ! एक पिता भी अपने बच्चे का अच्छा दोस्त होता है वह अपने बच्चे को बाहर की दुनिया के बारे में बताता हैं ! वह बताता है बाहर की दुनिया का सच और करता हैं उसकी रक्षा उन सभी बुराइयों से जो उसके बच्चे के लिए हानिकारक हैं !

आज इन्सान का जीवन बिना दोस्त के अधूरा है ! आज जिस तरह का वातावरण हमारे आस-पास निर्मित हैं , जहाँ एक-दूसरे पर विश्वास करना बड़ा मुश्किल हैं ! कोई किसी को कभी भी धोखा दे सकता है , फिर चाहे वह अपने सगी सम्बन्धी क्यों ना हों ! ऐसे जटिल समय में हम सभी को एक सच्चे दोस्त की आवश्यकता है ! जो किसी भी हालत और परिस्थियों में हमारी मदद करने को तैयार रहता है ! और सच्चा दोस्त बही होता है जो बिना किसी मतलब के अपनी दोस्ती को निभाता है ! आज जिन लोगों के पास कोई सच्चा मित्र नहीं हैं वह इन्सान आज दुनिया का सबसे अकेला प्राणी हैं ! उसके लिए दुनिया की कोई भी ख़ुशी बिना दोस्त के अधूरी हैं ! आज हम अपने जीवन में ऐसी कल्पना भी नहीं कर सकते जिसमें हमारा कोई मित्र ना हो ! जिस तरह शुद्ध वायु इन्सान के जीवन के लिए अमृत है ठीक उसी तरह एक सच्चा मित्र भी किसी जीवनदायक से कम नहीं है ! जो अपनी सूझ-बूझ से हर वक़्त हमें गलत राह पर जाने से रोकता है, मुसीबत के समय ढाल बनकर हमारी रक्षा करता हैं ! अगर दोस्त नहीं तो कुछ नहीं !

हम सभी ने दोस्ती और मित्रता के सेकड़ों किस्से और कहानियां सुनी हैं ! राम-सुग्रीव की मित्रता, कृष्ण -सुदामा की मित्रता जिसमे मित्रता के लिए सच्चे समर्पण को देखा गया ! जहाँ उंच-नीच, जात-पात, छोटा-बड़ा, अमीर-गरीब, राजा-रंक जैसी सोच का कोई स्थान नहीं था ! किन्तु जैसे -जैसे कलियुग की शुरुआत हुई , इन्सान के दिलों में नफरत की भावना ने जन्म लिया, जहाँ मित्र की पहचान अपने बराबर के लोगों में की गयी ! उंच-नीच का भाव दिलों में भर गया ! जब से अमीर-गरीब का फर्क देखने लगे ! तब से मित्रता का सच्चा स्वरुप कहीं खो गया ! और खो गयी गयी सच्ची मित्रता !इसके पीछे हम आम इन्सान ही हैं ! जो शायद सही मित्र की पहचान नहीं कर पाते , यदि करते भी हैं तो सच्ची मित्रता निभा नहीं पाते ! इसका खामियाजा भी हम इंसानों को ही उठाना पड़ रहा है ! आज ऐसे कई लोग हैं जो सही मित्र और मार्गदर्शक ना मिल पाने के कारण अपनी सही राह से भटक गए और बुराई के उस मुकाम तक पहुँच गए जहाँ कोई भी आम इन्सान जाना नहीं चाहता ! क्योंकि एक सच्चा मित्र हमारा बहुत बड़ा शुभचिंतक और मार्गदर्शक होता हैं !

क्या आपके पास है एक सच्चा दोस्त ?

सकारात्मक सोच से बनाएँ सेहत

एक समय वह भी था जब लोग कम पैसे कमाकर भी खुश रहते थे, वहीं भागदौड़ और प्रतियोगिता के इस दौर में अब लाखों-करोड़ों कमाने के बाद भी लोगों के चेहरे पर वह खुशी नहीं होती जो पहले हुआ करती थी। लोग अपने काम से नाखुश हैं, अवसाद का शिकार हो रहे हैं। उनकी सोच सकारात्मक के बजाय नकारात्मक होती जा रही है। यह स्थिति सेहत की दृष्टि से नुकसानदायक है। आइए जानते हैं कुछ आसान टिप्स नकारात्मक सोच से बचने के : हमें किसी भी परिस्थिति में हार नहीं माननी चाहिए। इससे बड़ी से बड़ी कठिनाई भी हमें छोटी नजर आएगी। लगातार अपने दिमाग को सकारात्मक संदेश देते रहना चाहिए। 
खुद को री-चार्ज करें।  
जीवन में आने वाली छोटी से छोटी खुशियों की कल्पना करें।  
मेडिटेशन, शॉपिंग और अपनी दूसरी रुचियों को बढ़ावा देकर भी आप खुश रह सकते हैं।  
इसके अलावा आप अपनी कुछ आदतों और तरीकों में बदलाव लाकर भी अपने दुख और परेशानी को दूर सकते हैं। जब भी आपको यह लगे कि एक ही समय में आपकी जरूरत दो जगह पर है तो ऐसी परिस्थिति में कतई निराश न हों बल्कि ऐसे समय में अपने किसी दोस्त व परिवार वाले की मदद ले सकते हैं।


रिश्तों में ताजगी लाएँ।

अक्सर लोगों को यह लगता है कि प्यार जताने की जरूरत नहीं होती है मगर हकीकत में समय-समय पर अपने चाहने वालों को यह बताते रहना चाहिए कि आप उनसे कितना प्यार करते हैं। आपके जीवन में उनका क्या महत्व है। इससे आपकी डगमग होती गाड़ी भी वापस पहिए पर चलने लगेगी। प्यार आपको खुशी का अहसास देता है और जब आप अपने प्यार का इजहार करते हैं तो सामने वाला भी खुश होता है और आप भी।
अपने काम में कोताही न करें।  
घर हो या बाहर अपने काम में कोई कोताही न करें। ऑफिस में अपने टीम के किसी सदस्य से रूखा व्यवहार न करें। अपने प्रोफेशनलिज्म के साथ समझौता न करें। वाद-विवाद से दूर रहने का प्रयास करें। ऑफिस के उन लोगों से बातचीत सीमित रखें जो आपके स्तर के नहीं है। शारीरिक व्यायाम के अलावा टीवी देखकर और किताबें पढ़कर भी आप दिमाग को विषम परिस्थितियों से दूर रख सकते हैं। इसके अलावा फल-फूल, सब्जी और सलाद खाकर भी खुद को तंदुरुस्त रख सकते हैं।

Friday, November 26, 2010

सोच के देखो: टीवी चैनलों में अश्लीलता

सोच के देखो: टीवी चैनलों में अश्लीलता

टीवी चैनलों में अश्लीलता

            पर्दे का प्रभाव समाज पर पड़ता है अथवा समाज में जो कुछ प्रचलित रहता है, वही सब पर्दे पर दिखाया जाता है, यह बात लंबे समय से विवाद का विषय रही है।


ब कभी समाज में कोई गंभीर घटना घटित होती है, यह विवाद और तेज हो जाता है। 80 के दशक में टेलीविजन घरों-घर पहुंचा। इसके पहले नाटक, फिल्मों से ही लोगों का मनोरंजन होता था। समय के साथ-साथ नाटकों और फिल्मों की विषय वस्तु में बदलाव आता गया और जब से 24 घंटे चलने वाले चैनलों का साम्राज्य कायम हुआ है, तब से सारी सामाजिक-सांस्कृतिक परंपराओं की परिभाषा ही बदल गयी हैं। अब थियेटर और फिल्में टीवी के प्रभाव में आ ही गयी हैं, समाज भी इससे अछूता नहींरह सका। बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा कि समाज में बहुत से रीति-रिवाज टीवी चैनलों से संचालित होने लगे हैं। मनोरंजन के नाम पर लोगों को किस तरह भ्रम में रखना है, इसे वे बखूबी जानते हैं। इसलिए चाहे नृत्य-संगीत व अन्य कलाओं को पेश करने वाले रियलटी शो हों या काल्पनिक कथाओं पर आधारित धारावाहिक हों, अथवा समाचार चैनल ही क्यों न हों, सबकी कोशिश यही रहती है कि कैसे ज्यादा से ज्यादा दर्शकों को बांध कर रख सकें। जिसने ज्यादा दर्शक, उतनी ज्यादा टीआरपी और उतने ज्यादा विज्ञापन। टीआरपी और विज्ञापन से होने वाली कमाई का लालाच टीवी चैनलों के मालिकान पर इस कदर हावी है कि दर्शक गौण हो गए हैं। दर्शकों को क्या देखना चाहिए और दर्शक क्या देखना चाहते हैं, इस द्वंद्व में उत्तरार्ध्द वाक्य की जीत होती है। अर्थात दर्शक जो देखना चाहते हैं, चैनल वही दिखाते हैं। फिर चाहे वह समाज के लिए आपत्तिजनक हो, मर्यादाओं को खंडित करने वाला हो अथवा अश्लीलता की हद तक जाता हो। अगर समाज से इन पर कभी आपत्ति जतलाई जाती है तो टीवी चैनलों के पक्षधर बड़ी मासूमयित से अश्लीलता की परिभाषा पूछने लगते हैं और विवाद दूसरी दिशा में ले जाते हैं।
हाल ही में कलर्स और एनडीटीवी इमेजिन चैनलों में क्रमश: बिग बास व राखी का इंसाफ नामक दो रियलिटी शो पर अश्लीलता दिखाने का आरोप लगा, तो सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने इन कार्यक्रमों को मुख्य प्रसारण समय यानी रात 9 बजे के बजाए राज 11 बजे प्रसारित करने का आदेश दिया है। इस निर्देश के बाद से टीवी इंडस्ट्री, कलाकारों, समाजशास्त्रियों के बीच चर्चा छिड़ी हुई है कि यह कदम सही है अथवा नहीं। कुछ इसे आजादी पर हमला करार दे रहे हैं तो कुछ इसे सही ठहरा रहे हैं। जैसा कि ऊपर कहा गया है कुछ अश्लीलता की परिभाषा पूछने में लगे हैं। इसमें कोई दो राय नहींकि ये दोनों कार्यक्रम भारतीय समाज की मर्यादाओं के अनुकूल नहींहैं। मर्यादा, परंपरा, संस्कृति कोई भी नाम दे दें, तात्पर्य इससे है कि जिस कार्यक्रम को घर के सभी सदस्य एक साथ बैठकर न देख सकें, जो बड़े-बुर्जुगों व बच्चों के साथ न देखे जा सकें, ऐसे तमाम शो वयस्क श्रेणी में आते हैं। इन्हें मुख्य प्रसारण समय में नहींदिखाया जाना चाहिए। इस लिहाज से मंत्रालय ने बिल्कुल सही निर्देश जारी किए हैं। समाचार चैनलों द्वारा इन कार्यक्रमों के हिस्से दिखाने पर भी मंत्रालय ने रोक लगाई है। बिग बास व राखी का इंसाफ दोनों कार्यक्रमों में बहुत सी बातें ऐसी हैं, जो बच्चों के देखने लायक बिल्कुल नहींहैं। बच्चे सबसे ज्यादा टीवी कार्यक्रमों से प्रभावित होते हैं। इसलिए इन कार्यक्रमों का समय बदलना सही दिशा में उठाया गया कदम है। किंतु यह ध्यान देने की बात है कि तकनीकी क्रांति के इस दौर में कम्प्यूटरों अथवा डीटीएच आदि के जरिए कार्यक्रम रिकार्ड कर देखने की सुविधा मौजूद है। ऐसे में कार्यक्रमों को देखने से रोक लगाना मुश्किल है। अच्छा होता अगर मंत्रालय इनमें परोसे जाने वाली अश्लील सामग्री पर अंकुश लगाए। तर्क-कुतर्क के सहारे अथवा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर चैनलों को मनमर्जी करने की छूट नहींदी जानी चाहिए।

Tuesday, November 23, 2010

शिष्टाचार

विनम्रता एवं शिष्टाचार अंत:करण की अभिव्यक्ति है। शिष्टाचार सुसंस्कृत व्यक्तित्व का परिचायक है। शिष्टाचार का मूल मंत्र है-अपनी नम्रता और दूसरों का सम्मान। इस भाव का धनी व्यक्ति ही सभ्य और सुसंस्कारी माना जाता है। शिष्टाचार सर्वत्र सम्मानित होता है और अनायास ही अपने विश्वास एवं विनम्र व्यक्तित्व की छाप औरों पर छोड़ता है। विनम्रता मनुष्य का सर्वोपरि अलंकार है। बड़ों की प्रतिक्त्रिया तथा श्रद्धा-सम्मान मनुष्य की आयु, विद्या, यश और बल की अभिवृद्धि करता है। छोटों के प्रति स्नेहहित स्वर में शुभाशीष और बराबर वालों के प्रेमपूर्ण अभिवादन शिष्टाचार के यही मूल मंत्र हैं। जीवन का विकास-क्त्रम, उन्नति-अवनति, प्रसन्नता-खिन्नता, मान-अपमान का बहुत कुछ आधार व्यक्ति की शिष्टता एवं शालीनता पर निर्भर करता है। उद्दंड, उच्छृंखल, अशिष्ट व्यवहार से वैयक्तिक एवं सामाजिक, दोनों के ही विकास के मार्ग अवरुद्ध हो जाते हैं। इसके विपरीत जो सभ्य, शिष्ट एवं उदार होते हैं वे व्यावहारिक कला में दक्ष होते हैं।
व्यक्तिगत जीवन या समाजगत जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में प्रगति, स्थिरता एवं सुख-शाति परस्पर स्नेह, सद्भाव के आधार पर ही अवलंबित है। अत: इस तथ्य के मर्मज्ञ, मनीषी एवं विद्वानों की मान्यता है कि व्यवहार सदैव विनम्र एवं शालीन होना चाहिये। चारो ओर मधुरता, सादगी, सज्जनता का वातावरण उत्पन्न करना चाहिए। दूसरों के साथ वैसा व्यवहार न करें जैसा हम अपने लिए नहीं चाहते। इसी तथ्य को शिष्टाचार, सभ्यता एवं नागरिकता के नाम से जाना जाता है। यह मानव का सर्वश्रेष्ठ जीवन मूल्य एवं अनमोल संपदा है। जिसमें यह भावना जितनी अधिक होगी वह उतना ही शिष्ट, सभ्य और शालीन माना जाएगा। जीवन-विद्या का धनी व्यक्तिविनम्र होता है। विद्या को जहा विनम्रता की जननी माना गया है वहीं विनम्रता को व्यक्ति संवारने वाली सहयोगिनी कहा गया है। विनय से मिलकर व्यक्तित्व मूल्यवान हो जाता है।

Wednesday, November 10, 2010

भ्रष्टाचार


भारत भ्रष्टाचार का गढ़ बन चुका है ,इसमें कोई संशय नहीं ,ग्राम पंचायत एक सं लेकर पुलिस, न्यायालय और राजनीति तक सभी भ्रष्टाचार की गिरफ्त में हैं ! राष्ट्र की स्थिति इतनी बदतर हो चुकी है कि ! हम अपनी खुद की जेबों पर ही डाका डालने के आदी हो चुके हैं ,अपने ही भाई बहिनों की मजबूरियों को नकदीकरण करने की विधियां खोजने में लगे रहते हैं ! नित्य ही प्रत्येक का पाला किसी न किसी रूप में भ्रष्टाचार दानव से पड़ता है ! इस देश की हालत यह है कि यहाँ स्कूल खोलने या चलाने वालों से उसकी योग्यता और क्षमता तथा अनुभव नहीं पूछा जाता और न स्कूल खोलने की मान्यता नियमों व शर्तों में इनका कोई स्थान है , वरन् स्कूल खोलने वाले के पास कितना धन है ,कितनी जगह है,कितनी सुविधायें हैं यह महत्वपूर्ण है ! यानि कोई धन्ना सेठ ही स्कूल खोल सकता है भले खुद पूरी तरह सौ के सौ टके अंगूंठा टेक हो ! यहाँ सरकारी विभाग मान्यता बेचता है ,एक व्यवसायी उसे खरीदता है और फिर वह यथा सुविधा तथा वसूली के हिसाब से पब्लिक को लूटता है ! यानि सरकारी लायसेन्स प्राप्त लुटेरे ! यदि सर्वथा पढ़ा लिखा और सक्षम व योग्य बेरोजगार  ,जो स्कूल की मान्यता खरीद नहीं सकता है वह या तो प्रायवेट टयूशन पढ़ाये या फिर किसी धन्ना सेठ के यहाँ चार पांच सौ रूपये महीने पर स्कूल की नौकरी करे ! प्रायवेट टयूशन पढ़ाना भी आज के जमाने में हंसी खेल नहीं रहा ! वह भी पूरी तरह व्यावसायिक मार्केटिंग के रूप में ढल चुका है ! शुध्द रूप से सड़क पर खड़े एक बेरोजगार को न तो व्यावसायिक मार्केटिंग करना आती है और न उसके पास इतना धन ही होता है , सो उसकी तमाम योग्यताओं के बाद भी यहाँ भी उसकी असफलता परम स्वाभाविक ही है ! सो वह स्वत: ही पुन: किसी धन्ना सेठ के यहाँ कोचिंग मे गुलामी के लिये ही जायेगा ! उपरोक्त उदाहरणों से क्या आपको नहीं लगता कि  भ्रष्टाचार शोषण का सृजक भी है  संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकार ''समानता के अधिकार'' का भी भ्रष्टाचार परम अतिक्रामक है !  सरकारी दफ्तर आजकल बिना तराजू बांट के सरकारी अनुमोदन और मान्यता या प्रमाणीकरण या पंजीयन आदि आदि बेचने की दूकानें मात्र बन कर रह गये हैं !   लोक सेवक अब लोक सेवक न होकर हुकूमती दरोगे बन चुके हैं !  आम आदमी लोकतंत्र में सबसे तुच्छ प्राण बन कर रह गया है !  वोट या मतदान की कीमत केवल चन्द दिल बहलाऊ चुनावी वायदे बन कर रह गयी है !  सरकारी गोपनीयता और शासकीय कार्य व्यवधान की आड़ में एक तगड़ा साजिशी खेल खेला जा रहा है ,जिसने भारतीय लोकतंत्र की बुनियादें हिला दीं है ! सुविधा शुल्क या रिश्वत या भेंट, उपहार आदि सरकारी लोगों के लिये अनिवार्य रिवाज या परम्परा बन चुके हैं ! साधारण आदमी किस कदर सरकारी कार्यालयों में बेइज्ज्त होता है और एक फाइल महीनों लटका कर आखिर में जानबूझ कर खारिज कर दी जाती है !पैसा देकर घर बैठे सरकारी आदेश हाथ आ जाते हैं !देश की मध्यम वर्ग की जनता की 60 प्रतिशत रकम की लेनदारी और देनदारी केवल रिश्वत में ही चली जाती है । आज देश का हर आदमी ही दुखी है भ्रष्टाचार के दानव से ,वे भी इससे दुखी हैं जो खुद भ्रष्ट हैं ,वे बेचारे किसी और से लेकर आते हैं और दूसरा उनसे ले जाता है ! मौका पड़े तो एक छोटा सा सिपाही टी. आई .या थानेदार पर से भी रिश्वत ले लेता है !

स्थिति इतनी बदतर हो गयी है कि, सरकारी नौकरी करने का उददेश्य देश भक्ति और जन सेवा न होकर महज दो नंबर की कमाई के लिये एक सरकारी पटट्ा हासिल करना मात्र रह गया है ! यदि किसी पर झूठा भी आरोप हत्या का मढ़ जाये पुलिस और वकील उसके सारे कर्म कर डालते हैं ,रही बची कसर अखबार पूरी कर डालते हैं ! पुलिस अंतिम दम तक उसकी जमानत नहीं होने देती और  जेल में तब तक सड़ाने की कोशिश करती है तब तक कि फैसला न हो जाये और हमारे यहाँ फैसलों की यह हालत है कि एक एक मुकदमें को वर्षो सुनवाई होने में लगते हैं ! तब तक कई बसे बसाये आशियाने पूरी तरह नेस्तनाबूद हो चुकते हैं ! भले ही बाद में मुल्जिम निर्दोष सिध्द पाया जाये ! बाद में वकील या पुलिस सभी यह कह कर पिण्ड छुड़ाते हैं कि ''हानि लाभ जीवन मरण जस अपजस विधि हाथ '' दिलचस्प पहलू देखिये , हत्या के झूठे आरोप मात्र में बन्द आदमी के जो कर्म कर डालते हैं वही लोग अपने खुद के घरों में हत्यारों की ही पूजा करते हैं ,कौन होगा जो कृष्ण को नहीं पूजता होगा
दरअसल हम भारत वासी दोहरा चरित्र जीते हैं ,दिन भर जिसकी बुराई करते हैं रात को वहीं उसी की शरण या सान्निध्य में पहुंच जाते हैं ! वेश्या हो या भगवान जिसका अस्तित्व जो सार्वजनिक रूप से नकारा करते हैं ,अक्सर वे वहीं अंतत: जाते हैं ! सार्वजनिक रूप से शराब की निन्दा करने वालों को मैंने महफिलों में झूमते देखा है ! रिश्वत पर लम्बे भाषण की चाशनी बिखराने वालों को मैंने भ्रष्टाचार के समुंदर में अथाह गोते लगाते देखा है ! एक कहावत है कि ''बद अच्छा, बदनाम बुरा'' लगभग यही हालत सरकारी कार्यालयों की है ! वे बुरा काम करना चाहते हैं मगर बिना बदनाम हुये ! मेरे एक मित्र बहुत बड़े सरकारी पद पर थे ,मैने कभी कभार मजाक में उन्हें रिश्वत खाने पर उलाहना दिया , और उन्हें उनके इस बुरे काम के कई बुरे परिणाम समझाये और कहा कि बेटा बच के खेलना नही ंतो किसी न किसी दिन तगड़े निबटोगे ! वे हल्के से मुस्कराये और बोले अरे यार ''लेते पकड़ गये तो, दे के छूट जायेंगें ''

भारतीय दण्ड संहिता में कुल 511 धारायें हैं, अंग्रेजो को खतरा कृष्ण से था और उससे भी बड़ा खतरा कृष्ण की विचार धारा मानने वालों से था ! अगर भारतीय दण्ड संहिता को कृष्ण से मिलाया जाये तो मुझे नहीं लगता कि काेई धारा उसमें ऐसी हो जो कृष्ण पर लागू नहीं होती हो ! और सारी की सारी धाराओं में कृष्ण मुल्जिम न बनते हों ! कृष्ण गीता में भले ही कह गये हों या धमका गये हों कि ''मैं फिर फिर आऊंगा और हत्यायें करूंगा ! मगर सच ये है कि कृष्ण की मजाल नहीं जो अवतार ले कर दिखायें ! अगर आ गये कृष्ण तो भारत का शायद ही कोई थाना बचे जो हथकड़ी टांग कर कृष्ण को न ढूंढ़े ! फिर वही यक्ष प्रश्न कि क्या कोई ऐसा काम कृष्ण ने किया कि जिसे हम अपराध नहीं मानते ?
अब कृष्ण को मानने वालों का हश्र भिन्न कैसे हो सकता है !

आम भारतीय लगभग त्रस्त होकर उकता चुका है ! कभी कभार न्यायालयीन फैसलों की अच्छी  बुनियादें  उसमें उम्मीद की किरण फिर से जगा देतीं हैं , तो कई बार कुछ अच्छे मिसाली पुलिस अफसर उसमें फिर से एक जोश भर देते हैं और वह फिर लोकतंत्र को श्रध्दावनत होकर निहारने लगता है !भारतीय जीवन दोहरे माप दण्डों के घेर में है , चलो अंग्रेजो को तो हमें रोकना ही था मगर हम अब भी खुद को रोकें हैं यह तगड़ा विरोधाभास है, वे कृष्ण को नहीं आने देना चाहते थे बात लाजमी है ,मगर हम कृष्ण को आने से रोके बैठे हैं यह विरोधाभास है !सी. बी.एस.ई. ने राम और कृष्ण को काल्पनिक कहा यह अपने पुरखाें और बाप को काल्पनिक कहने वाली बात है ,क्या कल आने वाले समय में गांधी और नेहरू काल्पनिक नहीं होंगे ! यदि राम और कृष्ण किसी ने नहीं देखे तो ऐसे कितने होंगें ! जिन्होंने गांधी या नेहरू को देखा होगा ! चलो यहाँ तक ठीक है ! भारतीय गणराज्य का सर्वोच्च अधिपति महामहिम राष्ट्रपति देश को तथाकथित काल्पनिक कृष्ण के जन्म दिवस जन्माष्टमी पर राष्ट्र को शुभ कामनायें देता है यह विरोधाभास है, हमारा गौरवशाली जन नायक प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री उसी काल्पनिक कृष्ण के जन्म दिन पर लोगों को शुभ कामना संदेश देता है यह विरोधाभास है !

Sunday, November 07, 2010

ऋण लेकर घी पियो

सबका सब दिन एक सामान नही होता है कभी किसी का सितारा बुलंद होता है तो किसी का गर्त में बेचारे कर्ज को ही ले लीजिये यह मारा- मारा फिर रहा था जिस किसी के पाले में गया उसी को कलंकित कर दिया लेकिन अब इसके दिन बहुर गए हैं आज ऋण लेना अस्सम्मान की बात नहीं बल्कि शान का प्रतिक है आज कर्ज स्टेटस सिम्बल बन गया है अख़बारों के पन्ने लोनों के गुणगान से भरे पड़े हैं देश की नामी गिरामी हस्तियाँ टीवी चैनलों पर ऋणी होने का उपदेश पिला रही हैं बैंक वाले करोणों रुपया विज्ञापन पर खर्च कर रहे हैं वैसे सरकार भी चाहती है की देश का कोई भी घर ऋणी होने से वंचित न रहे इसके लिए उसने वाकायदा रिबेट दे रखी है जिसपर लोग बेवजह डिबेट कर रहे हैं लोन के किस्मों की सूची किसी बड़े रेस्टुरेंट के मीनू से भी लम्बी चौड़ी है आकर्षक पन्च लाइनों से युक्त जुमले एवं लोन बांटती अर्धनग्न माडल किसको नहीं अपने ओर आकर्षित कर लेगीं आज ऋण लेने को जो बुरा समझ रहा है वह अपना जीवन कठिनाई में गुजार रहा है और जो ऋण को उपहार समझ रहा है वो मालोमाल हो रहा है जब वैश्विकरण के इस युग में हर चीज परिवर्तनशील है सामाजिक एवं नैतिक मूल्यों की परिभाषा तेजी से बदल रही है तो ऋण के सन्दर्भ में पुरातन धारना क्योंआज जो जितना ऋणी है समाज भी उसका उतना ही ऋणी है देश ऋणी है राज्य ऋणी है संगठन एवं समाज ऋणी है तो ऋण लेना असम्मान की बात कैसे हो सकती है आखिर कर्ज लेकर कार की सवारी करनेवाले को दुनिया सम्मान से देखेगी की पैदल चलनेवाले को बहती गंगा में हाथ नहीं थोना कहाँ की बुद्धिमानी है जब सरकार मंत्रियों एवं संतरियों की सुख सुविधावों के लिए कर्ज ले सकती है तो आप कहा के नबाब ठहरे क्या आप सरकार से भी बड़े हैं वैसे कर्ज के विरोधियों की लाबी भी काफी मोटि- तगड़ी है मंदी ने कर्जखोरों पर लोगों को व्यंग्य वान छोड़ने का नया मौका दे दिया है कर्ज के विरोधियों का कहना है की अमेरिकी मंदी वहां के बैंकों की दरिया दिली का नतीजा है और बचत को महत्व देने के कारण भारतीय अर्थव्वस्था मंदी के प्रभाव से अछूती रही है हालाँकि मुझ जैसा कर्जखोर कभी भी इस तर्क को नहीं स्वीकार करेगा ऋण के विरोधियों को बिचौलियों के बीबी बच्चों का भी ख्याल नहीं ऋण का कारोबार बंद हो जाने पर बेचारे बिचौलियों के बीबी बच्चों को कौन पूछेगा कमीशन लेने वाले बैंककर्मियों की क्या दशा होगी तो आइये २२१२ के प्रलय से पहले हम अपनी अतृप्त इछाओं को कर्ज लेकर पूरा कर लें सुख सुभिधाओं का भोग कर लें फिर क्या पता दुनिया रहे या न रहे

मन मनाइए और रोग भगाइए

टी.बी. के रोगाणु तो हर जगह मौजूद है लेकिन सभी उनसे प्रभावित क्यूँ नहीं होते ? मतलब साफ़ है की हमारा मन ही है जो इन रोगाणुओं को आमंत्रित करता है | मन ही शरीर की रोगों से रक्षा करने वाली प्रणाली को सुदृढ़ करता है तथा मन ही इस प्रणाली को कमजोर बनाता है | क्यूंकि बीमारियों का उदगम मन है इसलिए यदि मन मान ले कि हम स्वस्थ्य है ,अमुक बिमारी से पिडित्त नहीं है तो बिमारी स्वतः ठीक हो जाएगी | लेकिन ये मन है कि मानता नहीं |इसीलिए आप अपने मन को मनाइए और रोग को दूर भगाइए |

जो ब्यक्ति हमेशा मन से परेशान रहता है अथवा जिसमे आत्मविश्वास की कमी होती है या जो सदैव राग-द्वेशादी नकारात्मक मनोभावों से ग्रस्त रहता है उसको विभिन्न प्रकार के रोग जकड लेते है | नकारात्मक सोच अथवा मनोदशा की अवस्था में हमारे शरीर की अंतःस्त्रावी ग्रंथियों से जिन हारमोंस का उत्सर्जन होता है उनका सीधा असर हमारे स्वास्थ्य पर पड़ता है | यही अनुपयोगी हार्मोंस या घातक रासायन ही हमारे जोड़ों में जमा होकर शरीर के विभिन्न अंगों की गति को प्रभावित करते है |


मन के द्वारा हम सभी प्रकार के शारीरिक ब्याधियों का उपचार कर सकते है चाहे वे नयी हों अथवा पुरानी | सिरदर्द,पेट दर्द ,बदन दर्द,थकान सुस्ती, चोट जैसे सामान्य बीमारियों से लेकर मधुमेह, उच्च तथा निम्न रक्तचाप, ट्यूमर व कैंसर जैसी खतरनाक कहे जाने वाली बीमारियों का नियंत्रण अथवा इलाज भी मन के द्वारा ही संभव है | एलर्जी तथा त्वचा संबंधी कई रोगों का स्थायी उपचार यदि संभव है तो वह केवल मन के द्वारा ही हो सकता है| हमारी सोच का सीधा असर हमारे भौतिक शरीर पर पड़ता है | अपनी सोच को बदल डालिए आपका भाग्य ही बदल जाएगा | आरोग्य के साथ -साथ समृधि भी आपके द्वार पर दस्तक देगी | मन के माध्यम से आप अपने दृष्टिकोण को बदल सकते है तथा दृष्टिकोण के द्वारा जीवन की परिस्थितियों में परिवर्तन किया जा सकता है | इस प्रकार मन की शक्ति का उपयोग कर जीवन में अपेक्षित परिवर्तन संभव है | मन द्वारा हम सभी प्रकार के ब्याधियों का उपचार कर सकते है |

सकारात्मक सोच


स्वास्थ्य की कुंजी सकारात्मक सोच है। सोच और स्वास्थ्य एक-दूसरे के पूरक हैं। मनुष्य की सोच का उसके स्वास्थ्य पर बहुत गहरा असर पड़ता है। इंसान जैसा सोचता है, उसका शरीर वैसी ही प्रतिक्रिया करता है। नकारात्मक सोच शरीर को अस्वस्थ बनाती है। प्रतिरोधक क्षमता को कम कर देती है। सकारात्मक सोच शरीर को स्वस्थ और तनावमुक्त रखती है। ज्यादा सोचने से भूलने की प्रक्रिया विकसित होती है। इन दिनों हर वर्ग के लोग मानसिक अवसाद से ग्रस्त हो रहे हैं। इसकी सबसे बड़ी वजह यही है कि इंसान की सोच प्रतिस्पर्धा और आगे बढ़ने की होड़ में उलझती जा रही है। नकारात्मक सोच से आत्मविश्वास कम हो जाता है और डर की भावना पैदा हो जाती है। इंसान अपने दिमाग का सिर्फ 10 से 15 प्रतिशत ही इस्तेमाल करता है। ऐसे में अगर सोच नकारात्मक होगी तो निःसंदेह दिमाग भ्रमित हो सकता है। अच्छी सोच से स्वास्थ्य अच्छा रहता है। ठीक इसके विपरीत बुरी सोच से व्यक्ति हताशा और अवसाद से घिर जाता है। दरअसल खुशी से शरीर की धमनियाँ सजग और सचेत रहती हैं। सोच का सबसे ज्यादा प्रभाव चेहरे पर पड़ता है। चिंता और थकान से चेहरे की रौनक गायब हो जाती है। आँखों के नीचे कालिख और समय से पूर्व झुर्रियाँ इसी बात का सबूत हैं। शरीर में साइकोसोमैटिक प्रभाव के कारण स्वास्थ्य बनता है और बिगड़ता है। धूम्रपान, धूल, धुएँ के अलावा अस्वस्थ सोच से इंसान दिन-प्रतिदिन पीड़ित हो रहा है। मनुष्य अपने दुःख से दुःखी नहीं, दूसरों के सुख से ज्यादा दुःखी है। उसकी यह सोच अनेक रोगों को बढ़ा देती है। हमारे सोचने के ढंग को हमारा व्यक्तित्व भलीभाँति परिभाषित कर देता है, क्योंकि चेहरा व्यक्तित्व का आईना है।

शरीर पर रोगों के प्रभाव और सोच का गहरा संबंध है। अत्यधिक सोच के फलस्वरूप गैस अधिक मात्रा में बनती है और पाचन क्रिया बिगड़ जाती है। सिर के बाल झड़ने लगते हैं शरीर कई रोगों का शिकार हो जाता है। अत्यधिक सोचने से असमय बुढ़ापा घेर लेता है। उच्च रक्तचाप हृदयाघात का कारण बनता है। शंका, रोग निवारण में अवरोध का काम करती है। रोग का निवारण रोगी के विश्वास से होता है, चिकित्सक की दवा से नहीं। दवा दी जा रही है, यह भावना अधिक काम करती है। नदियों का स्रोत यदि हिमालय है तो हमारे स्वास्थ्य का स्रोत हमारा स्वस्थ मन है। यदि व्यक्ति प्रतिदिन रात्रि में सोते समय सकारात्मक भाव से स्वयं को भावित करे, तो वह अनेक साध्य व असाध्य रोगों का सफल व स्थायी निवारण कर सकता है। स्वस्थ रहना आसान है और सोच को सकारात्मक रूप देना उससे भी आसान है। जरूरत है तो सिर्फ सकारात्मक रुख अपनाने की। सकारात्मक सोच से सेहत बनती है और नकारात्मक सोच अनेक मनोशारीरिक रोगों को जन्म देता है। अगर सोच को समय के साथ स्वस्थ रूप दिया जाए तो सोच की लकीरें चेहरे पर खिंच नहीं सकतीं। स्वस्थ व्यक्ति सकारात्मक सोच से हर चीज को देखता है, जबकि अस्वस्थ व्यक्ति की सोच नकारात्मक रूप से सामने आती है।

शरीर की बीमारियाँ सोच से प्रेरित होती हैं। ऐसे में अपनी सोच को सही दिशा देना या सोच को सीमित करना आज के युग में मुश्किल काम है। आसपास के वातावरण से बहुत कुछ सीखा जा सकता है। केवल प्रकृति के समीप रहकर ही स्वस्थ रहा जा सकता है। मनुष्य का दिमाग और शरीर दोनों ही संतुलित रह सकते हैं। क्रोधित होने पर यदि व्यक्ति शीघ्र प्रसन्न हो जाए तो शरीर में होने वाले नुकसान से स्वयं को बचा जा सकता है। नकारात्मक सोच का प्रभाव बहुत जल्दी शरीर को रोगग्रस्त बनाता है। सकारात्मक सोच का प्रभाव बहुत ही धीमा होता है। लेकिन होता अवश्य है।

दीपावली के नाम पर दे दे बाबा


पत्रकारों से छुपते अधिकारी और लोग
दीपावली के दिन नजदीक आ रहे हैं, लोग दीपावली के लिए शुभ सन्देश अपने निकटवर्तियों को दे रहे हैं या फिर देने की तैयारी कर रहे हैं. परन्‍तु जो कुछ अपने शहर में देखेने को मिल रहा है, उसे देखकर मैं खुद को लिखने से नहीं रोक सका.

जहां इस में पत्रकारों की बिरादरी को नीचा किया जा रहा है, वहीं इस बात को सब के सामने रख कर निष्पक्षता दिखाने की भी जरुरत है. हाल ये है कि जो सही तरह की पत्रकारिता कर रहे हैं, उनको भी कभी-कभार लोगों के गुस्‍सा में सब कुछ सुनना पड़ रहा है. अब आपको बताते हैं कि वास्‍तव में चल क्या रहा है? दीपावली को नजदीक देख ऐसे पत्रकार क्षेत्र में नजर आ रहे हैं, जो कि पहले कभी पत्रकारिता के नजदीक तक नहीं देखे गए थे. कमी उनकी भी नहीं जो पत्रकारिता में नजर तो हर रोज आते हैं, लेकिन पत्रकारिता की आड़ में पैसे इकट्ठे करने में जुटे हुए हैं.

दीपावली में कुछ ही दिन रह गए हैं, तो अधिकारी छुपते-छुपाते नजर आ रहे हैं. कारण है दीपावली पर त्‍योहारी मांगना. आपको लगेगा की अधिकारी आप को किस बात की त्‍योहारी देंगे और किस तरह की. जी हां ये लोग भिखारियों की तरह अधिकारियों के पीछे घूमते रहते हैं कि वो उन्हें कुछ न कुछ जरुर दें. जिसका भाव जैसा भाव है वैसा मूल्‍य उन्‍हें मिले. इन पत्रकारों से अधकारी बेचारे इतने परेशान हैं कि वो इन दिनों अपनी कुर्सी पर भी बैठने से डर रहे हैं. बैठते हैं तो अपने काम को जल्द पूरा कर भागने में भलाई समझते हैं. जाने कब कहां से कोई पत्रकार आ टपके, कुछ मालूम नहीं.

इन पत्रकारों की वजह से शहर के बाकी पत्रकार भी परेशान हैं कि ऐसे लोगों लोगों की वजह से कभी कभार परेशान लोग इनको भी मांगने वाले पत्रकारों समान समझ लेते हैं, लेकिन सच्‍चाई सच्‍चाई ही है. जब अधिकारियों या लोगों को अपनी गलती का आभास होता है तो माफ़ी मांगते हैं या अपना दुखड़ा सुनाते हैं. इन मांगने वाले पत्रकारों के पास इनके समाचार ग्रुप का अधिकृत पत्र मांगा जाए तो ऐसे निकाल कर दिखाते हैं, जिसका कभी नाम भी न सुना गया हो. ये लोग हर विभाग के अधिकारी के पास जाते हैं, जो इन्हें प्यार से बुला ले तो उसकी शामत ही आ जाती है, लेकिन जो कड़क हो वो जरुर इनके जुल्म से बच जाता है.

इन मांगने वाले पत्रकारों में से तो कुछ ऐसे भी हैं जिनको अपना नाम तक लिखना नहीं आता. दीपावली क्या आ गई कि मांगने वाले पत्रकारों ने तो हड़कंप मचा रखा है. हर किसी से दीपावली के नाम पर जम कर पैसे मांग रहे हैं और न देने पर उनके खिलाफ खबर लगाने की धमकी भी देते हैं. ऐसे मौकों पर मालूम चलता है कि सही पत्रकार लोग इस कलयुग में अभी भी जिन्दा हैं, जिनकी वजह से पत्रकारिता की साख बरक़रार है.