Friday, November 26, 2010

टीवी चैनलों में अश्लीलता

            पर्दे का प्रभाव समाज पर पड़ता है अथवा समाज में जो कुछ प्रचलित रहता है, वही सब पर्दे पर दिखाया जाता है, यह बात लंबे समय से विवाद का विषय रही है।


ब कभी समाज में कोई गंभीर घटना घटित होती है, यह विवाद और तेज हो जाता है। 80 के दशक में टेलीविजन घरों-घर पहुंचा। इसके पहले नाटक, फिल्मों से ही लोगों का मनोरंजन होता था। समय के साथ-साथ नाटकों और फिल्मों की विषय वस्तु में बदलाव आता गया और जब से 24 घंटे चलने वाले चैनलों का साम्राज्य कायम हुआ है, तब से सारी सामाजिक-सांस्कृतिक परंपराओं की परिभाषा ही बदल गयी हैं। अब थियेटर और फिल्में टीवी के प्रभाव में आ ही गयी हैं, समाज भी इससे अछूता नहींरह सका। बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा कि समाज में बहुत से रीति-रिवाज टीवी चैनलों से संचालित होने लगे हैं। मनोरंजन के नाम पर लोगों को किस तरह भ्रम में रखना है, इसे वे बखूबी जानते हैं। इसलिए चाहे नृत्य-संगीत व अन्य कलाओं को पेश करने वाले रियलटी शो हों या काल्पनिक कथाओं पर आधारित धारावाहिक हों, अथवा समाचार चैनल ही क्यों न हों, सबकी कोशिश यही रहती है कि कैसे ज्यादा से ज्यादा दर्शकों को बांध कर रख सकें। जिसने ज्यादा दर्शक, उतनी ज्यादा टीआरपी और उतने ज्यादा विज्ञापन। टीआरपी और विज्ञापन से होने वाली कमाई का लालाच टीवी चैनलों के मालिकान पर इस कदर हावी है कि दर्शक गौण हो गए हैं। दर्शकों को क्या देखना चाहिए और दर्शक क्या देखना चाहते हैं, इस द्वंद्व में उत्तरार्ध्द वाक्य की जीत होती है। अर्थात दर्शक जो देखना चाहते हैं, चैनल वही दिखाते हैं। फिर चाहे वह समाज के लिए आपत्तिजनक हो, मर्यादाओं को खंडित करने वाला हो अथवा अश्लीलता की हद तक जाता हो। अगर समाज से इन पर कभी आपत्ति जतलाई जाती है तो टीवी चैनलों के पक्षधर बड़ी मासूमयित से अश्लीलता की परिभाषा पूछने लगते हैं और विवाद दूसरी दिशा में ले जाते हैं।
हाल ही में कलर्स और एनडीटीवी इमेजिन चैनलों में क्रमश: बिग बास व राखी का इंसाफ नामक दो रियलिटी शो पर अश्लीलता दिखाने का आरोप लगा, तो सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने इन कार्यक्रमों को मुख्य प्रसारण समय यानी रात 9 बजे के बजाए राज 11 बजे प्रसारित करने का आदेश दिया है। इस निर्देश के बाद से टीवी इंडस्ट्री, कलाकारों, समाजशास्त्रियों के बीच चर्चा छिड़ी हुई है कि यह कदम सही है अथवा नहीं। कुछ इसे आजादी पर हमला करार दे रहे हैं तो कुछ इसे सही ठहरा रहे हैं। जैसा कि ऊपर कहा गया है कुछ अश्लीलता की परिभाषा पूछने में लगे हैं। इसमें कोई दो राय नहींकि ये दोनों कार्यक्रम भारतीय समाज की मर्यादाओं के अनुकूल नहींहैं। मर्यादा, परंपरा, संस्कृति कोई भी नाम दे दें, तात्पर्य इससे है कि जिस कार्यक्रम को घर के सभी सदस्य एक साथ बैठकर न देख सकें, जो बड़े-बुर्जुगों व बच्चों के साथ न देखे जा सकें, ऐसे तमाम शो वयस्क श्रेणी में आते हैं। इन्हें मुख्य प्रसारण समय में नहींदिखाया जाना चाहिए। इस लिहाज से मंत्रालय ने बिल्कुल सही निर्देश जारी किए हैं। समाचार चैनलों द्वारा इन कार्यक्रमों के हिस्से दिखाने पर भी मंत्रालय ने रोक लगाई है। बिग बास व राखी का इंसाफ दोनों कार्यक्रमों में बहुत सी बातें ऐसी हैं, जो बच्चों के देखने लायक बिल्कुल नहींहैं। बच्चे सबसे ज्यादा टीवी कार्यक्रमों से प्रभावित होते हैं। इसलिए इन कार्यक्रमों का समय बदलना सही दिशा में उठाया गया कदम है। किंतु यह ध्यान देने की बात है कि तकनीकी क्रांति के इस दौर में कम्प्यूटरों अथवा डीटीएच आदि के जरिए कार्यक्रम रिकार्ड कर देखने की सुविधा मौजूद है। ऐसे में कार्यक्रमों को देखने से रोक लगाना मुश्किल है। अच्छा होता अगर मंत्रालय इनमें परोसे जाने वाली अश्लील सामग्री पर अंकुश लगाए। तर्क-कुतर्क के सहारे अथवा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर चैनलों को मनमर्जी करने की छूट नहींदी जानी चाहिए।

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